योग
योग भारत और नेपाल में
प्रचलित एक आध्यात्मिक प्रकिया को कहते हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ
लाने (योग) का काम होता है। यह शब्द - प्रक्रिया और धारणा - हिन्दू
धर्म,जैन धर्म और बौद्ध
धर्म में ध्यान प्रक्रिया
से सम्बन्धित है। योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण
पूर्व एशिया और श्री लंका में भी
फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत् में लोग इससे परिचित हैं।
इतनी प्रसिद्धि के बाद पहली बार ११ दिसम्बर २०१४ को संयुक्त
राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष २१ जून को विश्व योग
दिवस के रूप में मान्यता दी है। परिभाषा ऐसी होनी
चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द
के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग
के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। भगवद्गीता प्रतिष्ठित
ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले
और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग।
वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। पतंजलि योगदर्शन
में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के
भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे से
भिन्न हैं परन्तु इस प्रकार के विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता
है, कि योग की परिभाषा करना कठिन कार्य है।
Yog image |
परिचय : परिभाषा एवं प्रकार :-
योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी
दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का
अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज
संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग
शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आगे योग में हम देखेंगे कि आत्मा और
परमात्मा के विषय में भी योग कहा गया है।
गीता में श्रीकृष्ण ने एक
स्थल पर कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्' ( कर्मों
में कुशलता ही योग है।) यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत
है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने
में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो
परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द
का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी
कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा
दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की
वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं:
चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को
योग कहते हैं।
परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना
है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा
चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और
संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं
होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध
दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस
वाक्य का क्या अर्थ होगा? योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में
स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई
संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि
से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके
दार्शनिक आधार, को सम्यक् रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या
माननेवाला अद्वैतवादी भी
निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका
अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक
भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ
उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।
इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय
हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा
रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर
थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती
है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के
अभ्यास का समर्थन करते हैं।
परिभाषा :
·
(१) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृत्त निरोधः अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
·
(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि
योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष
का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।
·
(३) विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा
का पूर्णतया मिलन ही योग है।
·
(४) भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में
सर्वत्र समभाव रखना योग है।
·
(५) भगवद्गीता के अनुसार - तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक
न हो, इसलिए
निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।
·
(६) आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो मोक्ष से जोड़ने वाले सभी
व्यवहार योग है।
·
(७) बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
योग के प्रकार :-
योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक
पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये उन्हीं साधनों का वर्णन योग
ग्रन्थों में समय समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा। योग
की प्रामाणिक पुस्तकों में शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में योग
के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है -
मंत्रयोगों
हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः।
चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता , 5/11)
मंत्रो लयो हठो
राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात्
एक एव
चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥ (गोरक्षशतकम् )
उपर्युक्त दोनों श्लोकों से योग के प्रकार हुए : मंत्रयोग, हठयोग लययोग व राजयोग।
मंत्रयोग :
'मंत्र' का समान्य अर्थ है- 'मननात्
त्रायते इति मंत्रः'। मन को त्राय (पार कराने वाला) मंत्र ही है। मंत्र योग का
सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- मनन इति मनः। जो मनन, चिन्तन करता है वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के
द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में वर्णन इस
प्रकार है-
योग सेवन्ते साधकाधमाः।
( अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है जो अल्पबुद्धि है।)
मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती है मंत्र शरीर और मन दोनों
पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है मंत्र जप में तीन घटकों
का काफी महत्व है वे घटक-उच्चारण, लय व ताल हैं। तीनों का सही
अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता
है।
(1) वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा।
हठयोग :
हठ का शाब्दिक अर्थ हठपूर्वक किसी कार्य करने
से लिया जाता है। हठ प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है-
हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते।
सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥
ह का अर्थ सूर्य तथ ठ का अर्थ चन्द्र बताया गया है। सूर्य और चन्द्र
की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों
का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं। सूर्यनाड़ी अर्थात पिंगला जो दाहिने स्वर
का प्रतीक है। चन्द्रनाड़ी अर्थात इड़ा जो बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के
बीच तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है जिसमें पिंगला और इड़ा
नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रहमरन्ध्र में
समाधिस्थ किया जाता है। हठ प्रदीपिका में हठयोग
के चार अंगों का वर्णन है- आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध तथा नादानुसधान। घेरण्डसंहिता में सात
अंग- षटकर्म, आसन, मुद्राबन्ध, प्राणायाम, ध्यान, समाधि जबकि योगतत्वोपनिषद में आठ
अंगों का वर्णन है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
लययोग :
चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध
अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं।
योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है-
गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः
राजयोग :
राजयोग सभी योगों का राजा कहलाया जाता है क्योंकि इसमें
प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग महर्षि
पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों
का निरोध करना है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास
और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने
का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति
प्राप्त होती है है।
योगाडांनुष्ठानाद
शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः
राजयोग के अन्तर्गत महिर्ष पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार
बताया है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि।
योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन
अन्तरंग में आते हैं।
उपर्युक्त चार पकार के अतिरिक्त गीता में दो प्रकार के योगों का
वर्णन मिलता है-
(१) ज्ञानयोग (२) कर्म योग
ज्ञानयोग, सांख्ययोग से सम्बन्ध रखता है।
पुरुष प्रकृति के बन्धनों से मुक्त होना ही ज्ञान योग है। सांख्य दर्शन में 25 तत्वों का वर्णन मिलता है।
योग का इतिहास :-
वैदिक संहिताओं के
अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृत) के बारे
में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९००
से ५०० बी सी ई) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश
प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई
मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को
प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700
बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ
ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये
मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस
बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी
सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है।
ध्यान में उच्च
चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद्
की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था।
बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे
में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते हैं, बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के
लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण
ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति
कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह
संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.
उपनिषदों में ब्रह्माण्ड संबंधी
बयानॉ के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति
की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नारदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति
की ओर ऋग वेद से पूर्व भी इशारा करते है।
हिंदू ग्रंथ और बौद्ध ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थो में से एक है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते है जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते है जो पहले बौद्ध धर्म के भीतर विकसित हुईं. हिंदु वाङ्मय में,"योग" शब्द पहले कथा उपानिषद में प्रस्तुत हुआ जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो उच्चतम स्थिति प्रदान करने वाला मन गया है।] महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो योग की अवधारणा से सम्बंधित है वे मध्य कालीन उपनिषद्, महाभारत,भगवद गीता 200 BCE) एवं पतंजलि योग सूत्र है।
पतंजलि के योग
सूत्र :-
भारतीय दर्शन में, षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है। योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य स्कूल के साथ निकटता से संबन्धित है। ऋषि पतंजलि द्वारा व्याख्यायित योग
संप्रदाय सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को
स्वीकार करता है, लेकिन सांख्य घराने की तुलना में अधिक आस्तिक है, यह प्रमाण है क्योंकि सांख्य वास्तविकता के पच्चीस तत्वों
में ईश्वरीय सत्ता भी जोड़ी गई है। योग और
सांख्य एक दूसरे से इतने मिलते-जुलते है कि मेक्स
म्युल्लर कहते है,"यह दो दर्शन इतने प्रसिद्ध थे
कि एक दूसरे का अंतर समझने के लिए एक को प्रभु के साथ और दूसरे को प्रभु के बिना
माना जाता है।...." सांख्य और योग के बीच घनिष्ठ संबंध हेंरीच ज़िम्मेर समझाते है:
इन दोनों को भारत में जुड़वा के रूप में माना जाता है, जो एक ही विषय के दो पहलू है।यहाँ मानव प्रकृति की बुनियादी
सैद्धांतिक का प्रदर्शन, विस्तृत विवरण और उसके तत्वों का परिभाषित, बंधन (बंधा) के स्थिति में उनके सहयोग करने के तरीके, सुलझावट के समय अपने स्थिति का विश्लेषण या मुक्ति में
वियोजन ({{मोक्ष}}) का व्याख्या किया गया है। योग
विशेष रूप से प्रक्रिया की गतिशीलता के सुलझाव के लिए उपचार करता है और मुक्ति
प्राप्त करने की व्यावहारिक तकनीकों को सिद्धांत करता है अथवा 'अलगाव-एकीकरण'(कैवल्य) का उपचार
करता है।
पतंजलि, व्यापक रूप से औपचारिक योग
दर्शन के संस्थापक मने जाते है। पतंजलि के योग, बुद्धि का
नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है,राज योग के रूप में जाना जाता है। पतंजलि उनके
दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द का परिभाषित करते है, जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है:
तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिका है। अई.के.तैम्नी इसकी अनुवाद
करते है की,"योग बुद्धि के संशोधनों का निषेध है" । योग का प्रारंभिक परिभाषा मे इस शब्द का उपयोग एक उदाहरण है कि बौद्धिक तकनीकी शब्दावली और
अवधारणाओं, योग सूत्र मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है; इससे यह संकेत होता है कि बौद्ध विचारों के बारे में पतंजलि
को जानकारी थी और अपने प्रणाली मे उन्हें बुनाई. स्वामी विवेकानंद इस सूत्र को अनुवाद करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूपों (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध
करता है।
पतंजलि का लेखन 'अष्टांग
योग"("आठ-अंगित योग") एक प्रणाली के लिए आधार बन गया।
29th सूत्र
के दूसरी किताब
से यह आठ-अंगित अवधारणा को प्राप्त किया गया था और व्यावहारिक रूप मे भिन्नरूप से
सिखाये गए प्रत्येक राजा योग का एक मुख्य विशेषता है।
आठ अंग हैं:
1. यम (पांच "परिहार"): अहिंसा, झूठ नहीं बोलना, गैर लोभ, गैर विषयासक्ति और गैर स्वामिगत.
2. नियम (पांच "धार्मिक
क्रिया"): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन और भगवान को आत्मसमर्पण.
3. आसन:मूलार्थक अर्थ "बैठने का आसन" और पतंजलि सूत्र में
ध्यान
4. प्राणायाम ("सांस को स्थगित रखना"): प्राण, सांस, "अयाम ", को
नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की
गयी है।
5. प्रत्यहार ("अमूर्त"):बाहरी वस्तुओं
से भावना अंगों के प्रत्याहार.
6. धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य
पर ध्यान लगाना.
7. ध्यान ("ध्यान"):ध्यान की वस्तु
की प्रकृति गहन चिंतन.
8. समाधि("विमुक्ति"):ध्यान के
वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके दो प्रकार है - सविकल्प और अविकल्प। अविकल्प
समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति
की चरम अवस्था है।
इस संप्रदाय के विचार मे, उच्चतम
प्राप्ति विश्व के अनुभवी विविधता को भ्रम के रूप मे प्रकट नहीं करता. यह दुनिया वास्तव है। इसके
अलावा, उच्चतम प्राप्ति ऐसा घटना है जहाँ अनेक में से एक
व्यक्तित्व स्वयं, आत्म को आविष्कार करता है, कोई एक सार्वभौमिक आत्म नहीं है जो सभी व्यक्तियों द्वारा
साझा जाता है।
भगवद गीता :-
भगवद गीता (प्रभु के गीत), बड़े पैमाने
पर विभिन्न तरीकों से योग शब्द का उपयोग करता है। एक
पूरा अध्याय (छठा अध्याय) सहित पारंपरिक योग का अभ्यास को समर्पित, ध्यान के सहित, करने के
अलावा इस मे योग के तीन प्रमुख प्रकार का परिचय किया जाता है।
·
कर्म योग: कार्रवाई का योग। इसमें व्यक्ति अपने स्थिति के उचित और
कर्तव्यों के अनुसार कर्मों का श्रद्धापूर्वक निर्वाह करता है।
·
भक्ति योग: भक्ति का योग। भगवत कीर्तन। इसे भावनात्मक आचरण वाले लोगों
को सुझाया जाता है।
·
ज्ञाना योग: ज्ञान का योग - ज्ञानार्जन करना।
मधुसूदन सरस्वती (जन्म 1490) ने गीता को तीन वर्गों में विभाजित किया है, जहाँ प्रथम छह अध्यायों मे कर्म योग के बारे मे, बीच के छह मे भक्ति योग और पिछले छह अध्यायों मे ज्ञाना (ज्ञान)
योग के बारे मे गया है। अन्य टिप्पणीकारों प्रत्येक अध्याय को एक अलग 'योग' से संबंध बताते है, जहाँ अठारह
अलग योग का वर्णन किया है।
हठयोग:-
हठयोग योग, योग की एक विशेष प्रणाली है
जिसे 15वीं सदी के भारत में हठ योग
प्रदीपिका के संकलक, योगी स्वत्मरमा द्वारा वर्णित किया गया था।
हठयोग पतांजलि के राज योग से काफी अलग है जो सत्कर्म पर
केन्द्रित है, भौतिक शरीर की शुद्धि ही मन की, प्राण की और विशिष्ट ऊर्जा की शुद्धि लाती है। केवल पतंजलि
राज योग के ध्यान आसन के बदले, यह पूरे शरीर के लोकप्रिय आसनों की चर्चा करता है। हठयोग अपनी कई आधुनिक भिन्नरूपों में एक शैली है जिसे बहुत
से लोग "योग" शब्द के साथ जोड़ते है।
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